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hanuman ravan samvad

हनुमान ने दी रावण को सीख तो लगवा दी पूंछ में आग


॥दोहा 21॥

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।

तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥

 

॥चौपाई॥

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥

समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥

सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥

 

॥दोहा 22॥

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥

 

॥चौपाई॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥

बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

 

॥दोहा 23॥

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।

भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥

 

॥चौपाई॥

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥

बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥

उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥

सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥

आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

 

॥दोहा 24॥

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।

तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥

 

॥चौपाई॥

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥

जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥

जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥

रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥

कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥

पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता॥

निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥

 

 

भावार्थ - हनुमान ने रावण को बहुत समझाया कि भगवान श्री राम शरणागत को माफ कर देते हैं मेरे कहने से तुम माता सीता को छोड़ दो और प्रभु के चरणों में खुद को सौंप दो तो मुझे यकीन है कि प्रभु श्री राम माता सीता का हरण करने वाले अक्षम्य अपराध को भी माफ कर देंगें। लेकिन रावण क्रोधित हो गया और हनुमान को मारने का आदेश देने लगा तभी वहां पर विभिषण पहुंच गए और रावण को नमन कर कहा कि दूत का मारना नीति के विरुद्ध है इसके लिये कोई और सजा तय कर लें। सभी सभाजन भी इस पर सहमत दिखाई दिये तब रावण ने कहा कि वानर को पूंछ बहुत प्रिय होती है इसकी पूंछ में आग लगादो और अंग भंग कर इसे वापस भेज दो। हनुमान समझ गये कि यह मां सरस्वती की कृपा है जो रावण ऐसा करने जा रहा है। समस्त लंका के वस्त्र, घी और तेलादि हनुमान की पूंछ पर बांधने के लिये कम पड़ गये। जैसे ही हनुमान की पूंछ में आग लगी हनुमान बहुत ही छोटा आकार कर बंधन से मुक्त हो गये और फिर से विशाल रुप कर उछल उछल कर एक से दूसरी अटारी पर कूदने लगे। सभी लंकावासी इससे भयभीत हो गये।