शुक्रवार व्रत कथा
पौराणिक मान्यता के अनुसार, एक बुढ़िया थी जिसके सात बेटे थे। सातों भाइयों में से एक बहुत ही निक्कमा था तो बाकि बहुत ही काबिल व मेहनती थे। इसलिए बुढ़िया हमेसा निक्कमे बेटे को बाकि 6 भाइयों का झूठा खिलाती थी। एक दिन निक्कमे बेटे की पत्नी ने कहा कि तुम्हारी मां तुम्हारे साथ बहुत भेदभाव करती है पर उसे यकीन नहीं हुआ। एक दिन सच जानने क लिए सिरदर्द का बहाना कर वह रसोई में ही चादर ओढ़कर लेट गया। माता हमेशा की तरह जब 6 भाइयों को खाना खिला चुकी तो सातवें के लिए सबकी झूठन से खाना परोस सातवें बेटे को उठाने लगी। माता के इस कृत्य को देखकर उसने भोजन नहीं किया और घर छोड़कर परदेश चला गया. जब वह जाने को तैयार हुआ तो पत्नी का ख्याल आया जो पशुओं के बाड़े में गोबर के उपले बना रही थी। उसने अपने जाने के बारे में बताते हुए कहा
हम जावे परदेश आवेंगे कुछ काल,
तुम रहियों संतोष से धर्म आपनो पाल
वहीं पत्नी ने भी इसी लहजे में जवाब देते हुए कहा कि
जाओ पिया आनन्द से हमारी सोच हटाय
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय
दो निशानी आपने देख धरू से धीर,
सुधि मति हमारी बिसारियों रखियों मन गंभीर
अब निशानी मांतो कहा कि मेरे पास तो तुम्हें देने के लिेए कुछ भी नहीं है सिर्फ यह अँगूठी हैं यही रख लो। साथ ही उसने पत्नी से भी निशानी मांगी तो उसने कहा कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है यह गोबर से सने हाथ हैं उनकी छाप ही साथ ले जाओं। अब पीठ पर पत्नी के हाथों से बनी गोबर की छाप लिए वह चल पड़ा। परदेश में पहुंच गया। अपनी हालत का जिक्र एक सेठ से किया और नौकरी मांगी, सेठ ने भी रख लिया बात पैसों की हुई तो सेठ ने कहा जैसा काम वैसे दाम। अब वक्त आदमी को होशियार बना ही देता है। धीरे - धीरे वह कामकाज में माहिर हो गया। सेठ के बाकि नौकर चाकर भी उसकी होशियारी के मुरीद होने लगे साथ उससे कई लोग जलने भी लगे। सेठ ने भी भांप लिया कि बंदा काम का है। धीरे-धीरे सेठ ने उसे अपना बहीखाता संभालने का जिम्मा दे दिया और उसकी ईमानदारी से खुश होकर एक समय बाद सेठ ने उसे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया।
उधर उसकी पत्नी की बहुत दुर्दशा हो रखी थी, उसकी सास, जेठानियों ने उसका जीना हराम कर रखा था। एक तो घर का सारा काम उससे करवाती ऊपर से खाने को भी घास-फूस की रोटी मिल जाती तो गनीमत होती। एक दिन वह पास के वन से लड़कियां लेने गई तो उसने देखा कि कुछ महिलाएं वहां कथा कह रही हैं। जब उसने महिलाओं से पूछा कि यह व्रत कथा किसकी है तो उन्होंने बताया कि संतोषी माता की व्रत कथा कह रही हैं। उसने पूछा कि उसे भी इस व्रत की विधि बताएं। अब उसे रास्ते में मंदिर भी दिखाई दिया वह माता के चरणों में लेट गई और कहने लगी कि हे मां! मैं क्या करूं, मेरा कल्याण करो मां। मां ने भी उसकी पुकार सुनी। वह लकड़ियों को बेचकर प्रसाद के लिए गुड़ चना लाई और शुक्रवार (shukrawar vrat katha) का उपवास किया व व्रतकथा भी सुनी। कुछ ही दिनों में उसे पति की चिट्ठी मिली साथ ही पैसे भी आने लगे। अब वह हर शुक्रवार को उपवास करने लगी। फिर उसने मां से गुहार लगाई कि हे मां, मुझे मेरे स्वामी से मिला दे। तब स्वयं मां एक वृद्धा का भेष धारण कर उसके पति के पास पहुंची और उसे पूचा कि उसका कोई घरबार है या नहीं। उसने बताया कि सब कुछ है लेकिन इस काम को छोड़कर कैसे जाऊं? तब वृद्धा ने कहा कि तुम मां संतोषी के नाम का दिया जलाकर कल सुबह दुकान पर बैठना शाम तक तुम्हारा सारा हिसाब-किताब हो जाएगा और सामान भी बिक जाएगा। उसने ऐसा ही किया माता के वरदान से वह शाम के समय कपड़े गहने खरीदकर अपने गांव चल दिया। उधर उसकी पत्नी नित्य की तरह माता के मंदिर में माता से बातें कर रही थी," हे मां, मेरे स्वामी कब आएंगे तो उसने कहा बेटी तुम्हारे पास जो लकड़ियां हैं इनकी तीन गठरियां बना ले एक को नदी किनारे छोड़ दो, एक को यहां मंदिर में और एक को अपने घर जाकर पटककर कहना कि लो लकड़ियां दो भूसे की रोटी। माता के कहने पर उसने भी वैसा ही किया। उधर से जब उसका पति लौट रहा था तो नदीं पार करते हुए ही सूखी लकड़ियां दिखाई थी, सफर से थकान हो गई थी और भूख भी लग आयी थी। उसने आग जलाई और भोजन का प्रबंध किया और खापीकर घर की ओर रवाना हुआ। जब वह घर पहुंचा तो उसने सुना कि उसकी पत्नी ने लकड़ियों का गट्ठर आंगन में पटकर कहा कि लो सासूजी लकड़ियों का गठ्ठर लो और भूसे की रोटी दो। पति ने स्वर सुना तो वह बाहर आया अपनी पत्नी की हालत देखकर उसे बहुत दुख हुआ।
अपनी मां से पूछा कि इसकी ऐसी हालात क्यों हुई तो मां ने कहा कि कामधाम कुछ करती नहीं, गावंभर में भटकती रहती है। पर वह अपने साथ हुए अन्याय को भी भूला नहीं था उसने दूसरे घर की चाभी मांगी और अलग रहने लगा। अब तो मां संतोषी की कृपा से उसके दिन बहुर गए। फिर वह शुक्रवार (shukrawar) भी आया जिसमें माता का उद्यापन करना था। पूरी तैयार कर ली गई उसने अपनी जेठानी के बच्चों को बुलाया, लेकिन जेठानी ने अपने बच्चों को पूरी तरह सीख देकर भेजा कि भोजन के समय खटाई मांगना। अब बच्चे भोजन के बाद खट्टी चीज के लिए जिद करने लगे तो उसने मना करते हुए माता का प्रसाद और पैसे बच्चों को दे दिए। उन्हीं पैसों से बच्चों ने खट्टी चीज खरीद ली और उसे खा लिया। इस प्रकार व्रत का उद्यापन पूरा नहीं हो पाया और मां संतोषी रुष्ट हो गई। बहु के पति को राजा के सैनिक पकड़कर ले गए। जेठ-जेठानी फिर से ताने मारने लगे, लोगों को लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लिया, अब जेल में सड़ेगा तो पता चलेगा। बहु से यह सब सहन नहीं हुआ और मां के चरणों में जा पहुंची और कहने लगी। मां मुझे और मेरे पति को किस बात की सजा दे रही हो। माता कहने लगी बेटी तूने उद्यापन पूरा नहीं किया इस वजह से तुम्हें यह सब सहन करना पड़ रहा है। अब दोबार उद्यापन करों और इस बार कोई गलती मत करना। बहु का पति वापस लौट आया और अगले शुक्रवार (shukrawar vrat katha) को विधिपूर्वक फिर से उद्यापन किया और इस बार कोई भी भूल नहीं की और ब्राह्मण के लड़के को बुलाकर व्रत का उद्यापन किया। इस बार पैसों की जगह फल दिए और उसका उद्यापन पूरा हुआ। मां संतोषी की कृपा से जल्द ही बहू ने एक सुंदर से पुत्र को जन्म दिया और बहु को देखकर पूरे परिवार ने संतोषी माता का विधिवत पूजन करना शुरू कर दिया और उनका परिवार सुख से जीवन बिताने लगा।